शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

क्या ऐसी योजना है मुख्यमंत्री की



यूपी पढ़ेगा तभी देश बढ़ेगा

Sep 28, 12:25 pm
नई दिल्ली। हा, उत्तर प्रदेश पढ़ेगा, तभी देश बढ़ेगा। वह जमाना गया, जब हम महज इसलिए खुश हो लेते थे कि हमारे पास महामना का बीएचयू है। सर सैय्यद का एएमयू है। देश-दुनिया में नाम कमा रहा है आइआइटी-कानपुर है। तब से अब तक वैश्विक स्तर की ऊंची पढ़ाई में रोज-ब-रोज क्रांति हो रही है। ऐसे में देश के सबसे बड़े सूबे में उच्च शिक्षा के संस्थानों की भरमार, शोध में वृद्धि, निजी क्षेत्र से हाथ मिलाना और उद्योग आधारित पाठ्यक्रम आदि में अब चुके तो देश पिछड़ जाएगा। साफ है, पहल उत्तर प्रदेश को ही करनी होगी।
सच तो यह है कि यह सब हमें बहुत पहले करना था। नहीं कर सके। देश के ही दूसरे राज्य को दूसरी नजरों से देख रहे हैं। आज महज साढ़े सात करोड़ की आबादी वाले राज्य तमिलनाडु में सरकारी व निजी मिलाकर कुल 59 विश्वविद्यालय हैं। जबकि, 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में सिर्फ 58 विश्वविद्यालय हैं। उनमें भी चार केंद्रीय, बाकी राज्य सरकार व निजी क्षेत्र के हैं। इसी तरह महज 11 करोड़ की आबादी वाले महाराष्ट्र में 4631 कालेज हैं तो उसकी दोगुनी आबादी वाले उत्तर प्रदेश में 3859 कॉलेज हैं।
तस्वीर के दूसरे रुख को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्कूली शिक्षा की जरूरतों को पूरा करना लाजिमी है। 5.14 करोड़ निरक्षरों वाले इस प्रदेश में 3.12 लाख शिक्षकों की कमी की अनेदखी नहीं की जा सकती। वह भी तब, जब हर साल लगभग 12 हजार शिक्षक रिटायर हो रहे हैं। 254 स्कूल बिना भवन के चल रहे हैं। 887 स्कूलों में पीने का पानी नहीं है। 2022 तक 50 करोड़ लोगों को स्किल्ड बनाने के लिए 1500 आइटीआइ की जरूरत है। जबकि, 458 असेवित ब्लाकों में कोई आइटीआइ है ही नहीं। नौ मंडल मुख्यालयों पर कोई विश्वविद्यालय ही नहीं है।
यह स्थितिया निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश के लिए एक बड़ा सबक हैं, लेकिन इसे बदला जा सकता है। शिक्षाविदों का मानना है कि संसाधनों के विस्तार को निजी क्षेत्र से हाथ मिलाने में उदारता दिखानी होगी। शोध व इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए मौजूदा विश्वविद्यालयों को अतिरिक्त मदद की जरूरत है। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम स्थानीय उद्योगों की जरूरत के लिहाज से तैयार हों तो शोध को और गति मिलेगी। विश्वविद्यालयों से बेहतर नतीजों के लिए उनका पाच साल की प्रगति का खाका तैयार होना चाहिए। यह पहले से तय हो कि वे पाच साल बाद कहा होंगे। साथ ही समय-समय पर उनकी प्रगति की समीक्षा भी जरूरी है।
पारदर्शिता के मद्देनजर हर विश्वविद्यालय व कॉलेज की सफलता की दर को उनकी वेबसाइट पर खुलासा होना चाहिए। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का सवाल अहम् है। लिहाजा, शिक्षकों की नौकरी के दौरान हर विश्वविद्यालय में उनके नियमित प्रशिक्षण का केंद्र खोला जा सकता है।
शिक्षा की राह में धन की कमी एक बड़ी बाधा है। सामाजिक दायित्वों की रोशनी में राज्य सरकार उसके लिए शिक्षा उपकर [सेस] का रास्ता भी तलाश सकती है। केंद्र सरकार का मानना है कि एक दशक में देश को लगभग 400 और विश्वविद्यालयों और लगभग 30 हजार नये कालेजों की जरूरत पड़ेगी। जाहिर है इसमें उत्तर प्रदेश को बड़ी भूमिका निभानी पड़ेगी।
लिहाजा, जो कल करना है, उसे आज से ही शुरु कर देने में प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की भी भलाई है। क्योंकि इस प्रदेश के पिछड़ने का असर देश पर पड़ता है। ऐसे में सच यही है कि उत्तर प्रदेश पढ़ेगा तो देश बढ़ेगा।
[राजकेश्वर सिंह]

यूपी चमका तो मिटेगा अज्ञान का अंधकार                      Sep 28, 12:25 pm

नई दिल्ली। देश-दुनिया में अपनी मेधा का लोहा मनवाते रहे उत्तर प्रदेश की यह उलटबासी नहीं तो और क्या है कि उसकी सबसे कमजोर नब्ज शिक्षा ही है।
देश की 74 फीसदी साक्षरता दर के मुकाबले 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में प्रति 100 व्यक्तियों में 70 लोग ही साक्षर हैं। कुल मिलाकर देश के 27 करोड़ अनपढ़ों में इस उत्तर प्रदेश से ही सवा पाच करोड़ निरक्षर आते हैं। यह शर्मनाक आंकड़ा मायूस करने वाला है, लेकिन दूसरा पहलू यह है कि थोड़े से प्रयास उत्तर प्रदेश न सिर्फ अपना, बल्कि पूरे देश की साक्षरता की तस्वीर बदल सकता है।
यह कोरी उम्मीद नहीं, तथ्य है। थोड़े से प्रयासों के जो नतीजे आए हैं,उससे उत्तर प्रदेश के भी हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिलने की उम्मीदें जवान हुई हैं। शिक्षा की तरफ लोगों की जागरूकता बढ़ी है। अब जिम्मेदारी सरकार व समाज के दूसरे सबल व सक्षम तबकों की है। चुनौती बड़ी है, लेकिन वास्तव में उम्मीद की किरण इस तथ्य से पैदा होती है कि दाखिले के बाद अब 80 फीसदी बच्चे स्कूल में टिकने लगे हैं। वरना पहले स्थिति बहुत ज्यादा खराब थी।
हालांकि, इस मामले में गौतमबुद्धनगर, रायबरेली, सुलतानपुर समेत 30 जिलों में स्थिति अब भी बदतर है। प्रदेश सरकार का ध्यान इस तरफ गया है तो नतीजे बदलने की उम्मीद की जानी चाहिए। बीच में पढ़ाई छोड़ने की स्थिति में सुधार भी बेहतरी की तरफ इशारा कर रहा है। प्राइमरी में अभी 11.06 प्रतिशत बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ रहे हैं। जबकि, पहले 16.71 प्रतिशत बच्चे दाखिला तो लेते थे, लेकिन मंजिल तक नहीं पहुंचते थे। इधर, तीन लाख से अधिक अतिरिक्त क्लासरूम बनाए जा चुकें हैं। इस साल 15 हजार से अधिक और बनेंगे। साथ ही प्रदेश सरकार ने शहरों में स्कूलों से वंचित बच्चों की पहचान के लिए लखनऊ, कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी में सर्वे कराने का भी फैसला भी किया है।
हालाकि, चुनौती अभी बहुत बड़ी है। बीस करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में लगभग तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूलों में हैं। छह से चौदह साल के महज एक लाख बच्चों को ही स्कूल तक पहुंचाने की चुनौती सामने है। उसमें भी प्रदेश के सीतापुर, हरदोई, महराजगंज, मिर्जापुर और फतेहपुर जिलों में सबसे ज्यादा फोकस करने की जरूरत है। वैसे राज्य सरकार के प्रस्ताव पर केंद्र ने प्रदेश के लिए दस हजार से अधिक प्राइमरी, एक हजार से अधिक अपर प्राइमरी और लगभग सवा सौ कंपोजिट स्कूलों को खोलने की मंजूरी दे रखी है।
खुद, केंद्र सरकार अकेले बूते शिक्षा के लिए सब कुछ कर पाने में हाथ खड़ा कर चुकी है। वह निजी क्षेत्र की ओर निहार रही है। जाहिर है उत्तर प्रदेश को भी इसकी दरकार है। प्रदेश में सपा की सरकार बनने के बाद से ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव विकास परियोजनाओं के लिए सार्वजनिक-निजी क्षेत्र भागीदारी [पीपीपी] की पैरवी लगातार कर रहे हैं। बावजूद इसके जरूरतमंदों में शिक्षा की पहुंच बढ़ाने के लिए ही प्रदेश सरकार शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में 70 आवासीय स्कूल अपने बूते खोलना चाहती है। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत स्कूल तक जाने-आने के साधनों की दिशा में कदम उठे हैं। प्रदेश सरकार ने शिक्षा के बजट में लगभग 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है। 13वें वित्त आयोग ने भी चालू वित्तीय वर्ष में प्रारंभिक शिक्षा के लिए 1027 करोड़ की मंजूरी दी है। इसमें केंद्र व राज्य मिलकर सहयोग करेंगे।
स्कूली शिक्षा प्रगति रिपोर्ट एक नजर-
-खर्च [मार्च-2012 तक] उपलब्ध धन का 87 प्रतिशत
सर्वशिक्षा अभियान- 13वें वित्त आयोग के अनुदान में राज्य ने अपने हिस्से का 871 करोड़ जारी किया
सिविल कार्य- 26 प्रतिशत कार्य पूरा
सामाजिक सहभागिता- 370 विकलाग लड़कियों का कस्तूरबा गाधी बालिका विद्यालयों में दाखिला
राजकेश्वर सिंह

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